भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति का तरीका क्या है?

कहा जाता है कि कलियुग में पाप कर्म का प्रभाव बढता जायेगा इसके चलते अगर हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे धार्मिक और पवित्र ग्रंथ भगवत गीता को ध्यान में रखकर इन पाप कर्मों से मुक्ति पाने के तरीकों के बारें में सोचेंगे तभी हमारे सामने यह बात अक्सर आयेगी कि   'जैसी करनी वैसी भरनी' आपने भी यह बात अक्सर सुनी होगी । मित्रों आजकल हम देख रहें है पाप, दुराचार, असत्य आदि अधिक बढ रहें हैं ।

जी हां मित्रों हमारे यहाँ कर्मो को लेकर अलग-अलग धर्मग्रंथों मतमतान्तर देखने को मिलता है  । हिन्दू धर्म में भगवत गीता में पाप कर्मों से मुक्ति पाने का तरीका भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने बताया गया है । मनुष्य को 84 योनियों को भोगने के बाद पुनः मनुष्य जीवन प्राप्त करता हैं । 

मनुष्य कर्म करता रहता है, कोई भी मनुष्य कर्म से दूर नहीं रह सकता । मनुष्य कर्म तो करता रहता है परन्तु मनुष्य यह नहीं देखता कि उनके द्वारा किया गया कर्म कर्म है, विकर्म है या अकर्म है। यहाँ हम भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति का तरीका क्या है ? यह जानने से पहले पाप कर्म को समझ लेते हैं।


हमारे मन में बहुत से प्रश्न होते है कि कर्म क्या है ? विकर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इस का कर्म को लेकर विस्तृत वर्णन हमारे भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है । भगवत गीता के अनुसार देखा जायें तो किसी भी जीव को दुःख देना पाप है । मनुष्य कर्म करता तो रहता है और मनुष्य को उनके कर्म अनुसार फल भी मिलता रहता है।


मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख क्यों आता है?

भगवत गीता के अनुसार सुख और दुःख व्यक्ति के अपने ही कर्मों का फल है । मनुष्य जैसा कर्म करता है उसके अनुसार वैसा ही फल भुगतना पडता है । अर्थात् सुख-दु:ख का कारण ओर कोई नहीं है सुख-दु:ख का कारण व्यक्ति के स्वयं अपने ही कर्म होते हैं ।

गीता के अनुसार कर्म क्या है?

कुछ इसप्रकार के कर्म जो कुछ ऐसे कर्मों की फल प्राप्ति की इच्छा से किया जाता हैं तो इसे कर्म कहते हैं। कर्म करने से बंधन उत्पन्न होता है। 

यदि हम श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार समझने का प्रयास करे तो अच्छे और बुरे  दोनों प्रकार के कर्म से मनुष्य का आत्मा कर्म-बंधन में पडता हैं। अगर कोई अच्छे कर्म करता है तो उसे अच्छा फल प्राप्त होता है और यदि कोई बुरे कर्म करता है तो उसे बुरा फल प्राप्त होता है लेकिन कर्मों का फल अवश्य प्राप्त होता ही है।

गीता के अनुसार विकर्म क्या है?

कर्म का द्वितीय प्रकार है 'विकर्म' विकर्म का फल सदा बुरा होता है । जो व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है। हम कहते है ना कि जैसा आप बीज बोएंगे, वैंसा ही फल मिलेगा।

गीता में अकर्म क्या है?

अब हम बात करेंगे जो तीसरा प्रकार है वो है 'अकर्म' अकर्म जो बंधन नहीं डालता और इनके करने से व्यक्ति सभी प्रकार के दुखों से पर हो जाता है।

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भगवत गीता के अनुसार पाप क्या है?

भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति का तरीका जानने से पहले आपको समझना होगा कि पाप-कर्म क्या हैं ? और ये कर्म हमें किस प्रकार बंधन में डालते हैं। कर्मों को लेकर विभिन्न धर्म शास्त्रों के अलग-अलग मत हैं। जबकि भगवत गीता के अनुसार किसी भी जीव को दुःख देना पाप है ।


भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति का तरीका क्या है?

श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार व्यक्ति को निष्काम कर्म करते रहना चाहिए । मनुष्य को भक्ति, ज्ञान, दान के माध्यम से पाप कर्मों से मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा हमारे सभी शास्त्रों में विधान बताया गया है । भगवत गीता के सातवें अध्याय में भगवान योगेश्वर ने पाप कर्मों से मुक्ति पाने के तरीकों के बारे में विस्तृत वर्णन किया है । 

यदि कोई मनुष्य भगवान की भक्ति नहीं करता या तो पुण्य आदि सतकर्म नहीं करता तो वह व्यक्ति निश्चित ही पाप कर्मों से लिप्त हो जाता है । शास्त्रों में अक्सर कहा गया है और देखा भी गया है कि पाप कर्मों की सजा मनुष्य को मृत्यु पश्चात् भी अगले जन्म में भी प्राप्त होती है ।

● पाप कर्मों से मुक्ति के लिए मनुष्य को सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए.

● पाप कर्मों से मुक्ति के लिए मनुष्य को यज्ञ करना चाहिए.

● पाप कर्मों से मुक्ति के लिए मनुष्य को तप करना चाहिए.

● पाप कर्मों से मुक्ति के लिए मनुष्य को सदैव इश्वर की भक्ति करनी चाहिए.

● पाप कर्मों से मुक्ति के लिए मनुष्य को दान आदि करना चाहिए.


स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के नवें अध्याय 30 वें श्लोक में कहा है कि - 

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।

                               (गीता अध्याय 09 श्लोक 30)

भावार्थ: यदि कोई अत्यंत दुराचारी व्यक्ति भी प्रेव व भक्ति के अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। क्योंकि उसने भली-भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर कृष्ण के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।।30।।

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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

                              (गीता अध्याय 18 श्लोक 66)

भावार्थ: सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत।

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2 Comments

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। उपयोगी भी है।

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