शिशुपाल वध प्रथम सर्ग PDF Download | शिशुपाल वध महाकाव्य PDF | Shishupal Vadh PDF

शिशुपाल वध प्रथम सर्ग PDF Download | शिशुपाल वध महाकाव्य PDF | Shishupal Vadh PDF

शिशुपाल वध एक महत्वपूर्ण कथा है जो महाभारत काव्य में उल्लिखित है। इसी को आधार बनाकर महाकवि माघ ने संस्कृत में शिशुपाल नाम का महाकाव्य लिखा। जो संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ तीन महाकाव्यों में से एक माना जाता है। 

इस महाकाव्य में कई प्रमुख घटनाएं होती हैं जो भारतीय संस्कृति और इतिहास को प्रकट करती हैं। शिशुपाल वध का अध्ययन करने से हमें इस कथा के महत्व, महाकवि माघ की साहित्यिक विलक्षणता और अन्य रोचक पहलुओं का अनुभव होता है। 

इस लेख में, हम शिशुपाल वध के प्रथम सर्ग के महत्वपूर्ण विषयों का विस्तार से वर्णन कर रहे हैं। इसके साथ ही यहाँ हम आपको शिशुपाल वध प्रथम सर्ग PDF Download, शिशुपाल वध महाकाव्य PDF, Shishupal Vadh PDF


शिशुपाल वध का प्रथम सर्ग

शिशुपाल वध के अन्तर्गत कुल 20 सर्ग हैं। (विंशति सर्गाः) इन सभी सर्गों में शिशुपाल वध प्रथम सर्ग विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से तथा साहित्यिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। 

विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं जैसे यूजीसी नेट संस्कृत, PGT संस्कृत, Assistant Professor संस्कृत परीक्षाओं में शिशुपाल वध प्रथम सर्ग से बहुत प्रश्न पूछे जाते हैं। 

यहाँ हम आपको शिशुपाल वध प्रथम सर्ग का सारांश के साथ साथ शिशुपाल वध प्रथम सर्ग PDF, संपूर्ण शिशुपाल वध महाकाव्य PDF (Shishupal Vadh PDF) तथा शिशुपाल वध महाकाव्य के महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी भी प्रदान कर रहे हैं।


शिशुपाल वध का मंगलाचरण: शिशुपाल वध का प्रथम सर्ग श्लोक

श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगज्जगन्निवासो वसुदेवसद्मनि ।
वसन्ददर्शावतरन्तमम्बराद् हिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनिं हरिः ॥ १ ॥


उपरोक्त श्लोक शिशुपाल वध का मंगलाचरण है। यह वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण है। इस श्लोक में महाकवि माघ भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा आकाश मार्ग से नीचे उतरते हुए नारद मुनि को देखने का वर्णन करते हैं। शिशुपाल वध के मंगलाचरण अर्थात् प्रथम श्लोक में वंशस्थ छन्द है। 

वंशस्थ छन्द में क्रमशः जगण, तगण, जगण, रगण होते हैं। जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।
इस प्रथम में श्लोक में बताया गया है कि सम्पूर्ण जगत् के आधारभूत (जगन्निवास) श्रीकृष्ण वसुदेव के गृह में (वसुदेवसद्मनि) निवास करते हैं।  जगन्निवास महान आधेय है तथा वसुदेवसद्मनि लघु आधार है। 

अतः इस यहाँ पर अधिक नामक अर्थालंकार है। जैसे कि साहित्यदर्पण में इसका लक्षण दिया गया है- आश्रयाश्रयिणोरेकस्याधिक्येsधिकमुच्यते।।
इस श्लोक में विरोध नामक अलंकार भी है। इसके अतिरिक्त छेकानुप्रास नामक शब्दालंकार भी है।

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शिशुपाल वध प्रथम सर्ग का सारांश

एक बार, द्वारिका नगरी में अपने महल में बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण जी ने मुञ्ज की मेखला, मृगचर्म, यज्ञोपवीत, और रुद्राक्षमाला पहने हुए और महती नामक अपनी वीणा को बजा रहे थे। तब वे आकाश से एक चमकता हुआ तेजपुंज नारद मुनि को उतरते हुए देखते हैं। द्वारिका के लोग इस प्रकार के चमकदार तेजपुंज को आकाश से नीचे आते हुए देखकर हैरान थे। 

वे सोचने लगे कि यह चमकीला तेजपुंज सूर्य का तो नहीं हो सकता, क्योंकि आदित्य पूर्व से पश्चिम की ओर चलता है और यह अग्नि भी नहीं हो सकती क्योंकि अग्नि ऊपर की ओर जलती है। पहले श्रीकृष्ण ने भी उस उतरती हुए वस्तु तेजपुंज समझा। 

जब नजदीकी के कारण आकार दृश्य होने लगा, तो उन्होंने सोचा, "यह कोई प्राणी है"। जब अंगों का स्पष्ट दृश्य हो गया, तो उन्होंने समझा, "यह कोई पुरुष है"। आखिरकार, उन्होंने नारद मुनि को पहचान ही लिया। नारद मुनि देवराज इन्द्र के लोक से भगवान श्रीकृष्ण को मिलने आए थे।


श्रीकृष्ण द्वारा नारद का सत्कार और उनके आगमन का कारण पूछना

नारद मुनि के आते ही भगवान श्रीकृष्ण अपने उच्च आसन से खड़े हो जाते हैं। श्रीकृष्ण ने नारद मुनि की विधि-पूर्वक पूजा की और अपने हाथों से दिए हुए आसन पर उन्हें बैठाया। ऊँचे आसनों पर बैठे हुए श्यामवर्ण श्रीकृष्ण जी और गौरवर्ण नारद मुनि उस समय अत्यधिक शोभायमान हो रहे थे। 

मुनि नारद की पूजा करके श्रीकृष्ण जी अत्यधिक हर्षित हुए तथा नारद द्वारा सभी तीर्थों से लाए गए एवं कमण्डलु निकाल कर छिड़के गए जल को श्रीकृष्ण ने अवनत मस्तक से ग्रहण किया। 

तत्पश्चात् स्निग्ध दृष्टि से नारद जी की ओर देखते हुए श्रीकृष्ण जी मन्द मुस्कान के साथ यह वचन बोले—“हे महामुनि ! यद्यपि आपके दर्शन से ही मैं कृतार्थ हो गया हूँ तथापि मेरे आत्मगौरव को बढ़ानेवाला आपका सराहनीय आगमन मुझे यह पूछने के लिए प्रेरित कर रहा है कि आप अपने आने के उद्देश्य को कहें"।


नारद का प्रत्युत्तर

नारद मुनि भी भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करने के बाद अपने आगमन का कारण बताते हैं कि हे हरि! आपने अधर्म को नष्ट करने और धरती पर पाप के बोझ को हल्का करने के लिए इस पृथ्वी पर अवतार लिया है। हालांकि, आप बिना किसी निवेदन के ही अधर्म को नष्ट करने में लगे हुए हैं। फिर भी मेरा मन आपसे एक प्रार्थना करना चाहता हूँ।

प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक बड़ा शूरवीर असुर हुआ, जिसने अपने पराक्रम से सभी देवताओं को भी परास्त कर दिया था। तब आपने नृसिंह अवतार धारण करके उसका वध किया था। उसी असुर ने फिर दूसरे जन्म में रावण के रूप में जन्म लिया था। 

तब उसने इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, वायु आदि सभी देवताओं को भी अपने वश में कर लिया था। तब आपने ही राम अवतार लेकर उस रावण का वध किया था । वही रावण अब इस जन्म में शिशुपाल के रूप में धरती पर उत्पन्न हुआ है। 

यह तो अपने पूर्व जन्म के हिरण्यकशिपु और रावण वाले रूपों से भी अधिक दुष्ट और भयंकर है। आप इस दुष्ट का शीघ्र वध कीजिए । दुष्टों का वध करना और सज्जनों की रक्षा करना आपका परम पवित्र कर्तव्य है । शिशुपाल के वध के उपरान्त ही देवता लोग सुखपूर्वक रह सकते हैं।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने नारद मुनि को कहा कि ऐसा ही होगा। इसके बाद नारद मुनि आकाश की ओर चल दिए। श्रीकृष्ण जी शिशुपाल के वध का विचार करने लगे और क्रोध से उनकी भौहें तन गयी।

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शिशुपाल वध श्लोक:, शिशुपाल कौन था? शिशुपाल किसका पुत्र था? शिशुपाल का भाई कौन था?, शिशुपाल वध के रचनाकार कौन है? शिशुपाल वध के लेखक.

शिशुपाल वध श्लोक: (प्रथम सर्ग)
श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगज्जगन्निवासो वसुदेवसद्मनि । वसन् ददर्शावतरन्तमम्बराद् हिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनिं हरिः ॥१॥
गतं तिरश्चीनमनूरुसारथेः प्रसिद्धमूर्ध्वं ज्वलनम हविर्भुजः । पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनैः ॥२॥
चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरस्ततः शरीरिति विभाविताकृतिम् । विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥३॥
नवानधोsधो बृहतः पयोधरान्‌ समूढकर्पूरपरागपाण्डुरम्‌ । क्षणं क्षणोत्क्षिप्तगजेन्द्रकृत्तिना स्फुटोपमं भूतिसितेन शंभुना ॥४॥
दधानमम्भोरुहकेसरद्युती र्जटाः शरच्चन्द्रमरीचिरोचिष‌म्‌ । विपाकपिङ्गास्तुहिनस्थलीरुहो धराधरेन्द्रं व्रततीततीरिव ॥५॥
पिशङ्गमौञ्जीयुजमर्जुनच्छविं वसानमेणाजिनमञ्जनद्युति । सुवर्णसूत्राकलिताधराम्बरां विडम्बयन्तं शितिवाससस्तनुम्‌ ॥६॥
विहङ्गराजाङ्गरुहैरिवाततै र्हिरण्यमयोर्वीरुहवल्लितन्तुभिः । कृतोपवीतं हिमशुभ्रमुच्चकै र्घनं धनान्ते तडितां गुणैरिव ॥७॥
निसर्गचित्रोज्ज्वलसूक्ष्मपक्ष्म्णा लसद्बिसच्छेदसिताङ्गसङ्गिना । चकासतं चारूचमूरुचर्मणा कुथेन नागेन्द्रमिवेन्द्रवाहनम्‌ ॥८॥
अजस्रमास्फालितवल्लकीगुण क्षतोज्ज्वलांगुष्ठनखांशुभिन्नया । पुरः प्रवालैरिव पूरितार्द्धया विभान्तमच्छस्फटिकाक्षमालया ॥९॥
रण्द्भिराघट्टनया नभस्वतः पृथग्विभिनाश्रुतिमण्डलैः स्वरैः । स्फुटीभवद्ग्रामविशेषमूर्च्छना मवेक्षमाणं महतीं मूहुर्मूहुः ॥१०॥
शिशुपाल वध श्लोक (प्रथम सर्ग)
निवर्त्य सो नुव्रजतः कृतानतीनतीन्द्रियज्ञाननिधिर्नभःसदः । समासदत्‌ सादितदैत्यसम्पदः पदं महेन्द्रालयचारु चक्रिणः ॥११॥
पतन्‌ पतङ्गप्रतिमस्तपोनिधिः पुरो स्य यावन्न भुवि व्यलीयत । गिरेस्तडित्वानिव तावदुच्चकैर्जवेन पीठादुदतिष्ठदच्युतः ॥१२॥
अथ प्रयत्नोन्नमितानमत्फणैर्धृते कथंचित्फणिनां गणैरधः । न्यधायिषातामभिदेवकीसुतं सुतेन धातुश्चरणौ भुवस्तले ॥१३॥
तमर्घ्यमर्घ्यादिकयादिपूरुषः सपर्यया साधु स पर्य्यपूपुजत्‌ । गृहानुपैतुं प्रणयादभीप्सवो भवन्ति नापुण्यकृतां मनीषिणः ॥१४॥
न यावदेतावुदपश्यदुत्थितौ जनस्तुषारासाराञ्जनपर्वताविव । स्वहस्तदत्ते मुनिमास्ने मुनि श्चिरंतनस्तावदभिन्यवीविशत्‌ ॥१५॥
महामहानीलशिलारुचः पुरो निषेदिवान्‌ कंसकृषः स विष्टरे । श्रितोदयाद्रेरभिसायकमुच्च्कै रचूचुरच्च्न्द्रमसो भिरामताम्‌ ॥१६॥
विधाय तस्यापचितिं प्रसेदुषः प्रकाममप्रीयत यज्वनां प्रियः । ग्रहीतुमार्यान्‌ परिचर्यया मूहुर्महानुभावा हि नितान्तमर्थिनः ॥१७॥
अशेषतीर्थीपहृताः कमण्डलोर्निधाय पाणावृषिणाभ्युदीरिताः । अधौधविध्वंसविधौ पटीयसीर्नतेन मूर्ध्ना हरिरग्रहीदपः ॥१८॥
स काञ्चने यत्र मुनेरनुज्ञया नवाम्बुदश्यामवपुर्न्यविक्षत । जिघाय जम्बूजनितश्रियः श्रियं सुमेरुश्रुङ्गस्य तदा तदासनम्‌ ॥१९॥
स तप्तकार्तस्वरभास्वराम्बरः कठोरताराधिपलाञ्छनच्छविः । वोदोद्युते वाडवजातवेदसः शिखाभिराश्लिष्ट इवाम्भसां निधिः ॥२०॥
शिशुपाल वध प्रथम सर्ग श्लोक संस्कृत
रथाङ्गपाणेः पटलेन रोचिषामृषित्विषः संवलिता विरेजिरे । चलत्पलाशान्तरगोचरास्तरोस्तुषारमूर्तेरिव नक्तमंशवः ॥२१॥
प्रफुल्ततापिच्छनिभैरभीशुभिः शुभैश्च सप्तच्छदपांसुपाण्डुभिः । परस्परेण च्छुरितामलच्छवी तदैकवर्णाविव तौ बभूवतुः ॥२२॥
युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकासमासत । तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विषस्तपोधनाभ्याजामसंभवा मुदः ॥२३॥
निधाघधामानमिवाधिदीधितिं मुदा विकासं यतिमभ्युपेयुषी । विलोचने बिभ्रदधिश्रितश्रिणी स पूण्डरीकाक्ष इति स्फुटो भवत्‌ ॥२४॥
सितं सितिम्ना सुतरां मुनेर्वपुर्विसारिभिः सौधमिवाथ लम्भयन्‌ । द्‍विजावलिव्याजनिशाकरांशुभिः शुचिस्मितां वाचमवोचदच्युतः ॥२५॥
हरत्ययं सम्प्रति हेतुरेष्यतः शुभस्य पूर्वाचरितः कृतं शुभैः । शरीरभाजां भवदीयदर्शनं व्यनक्ति कालतत्रितये पि योग्यताम्‌ ॥२६॥
जगत्यपर्याप्तसहस्रभानुना न यन्नियन्तुं समभावि भानुना । प्रसह्य तेजोभिरसंख्यतां गतैरदस्त्वया नुत्तमनुत्तमं तमः ॥२७॥
कृतः प्रजाक्षेमकृता प्रजासृजा सुपात्रनिक्षेपनिराकुलात्मना । सदोपयोगे पि गुरुस्त्वमक्षतिर्निधिः श्रुतीनां धनसंपदामिव ॥२८॥
विलोकनेनैव तवामुना मुने कृतः कृताथो स्मि निबृंहितांहसा । तथापि शुश्रूषुरहं गरीयसीर्गिरो थवा श्रेयसि केन तृप्यते ॥२९॥
गतस्पृहो प्यागमनप्रयोजनं वदेति वक्तुं व्यवसीयते यया । तनोति नस्तामुदितात्मगौरवो गुरुस्तवैवागम एष धृष्टताम्‌ ॥३०॥
इति ब्रुवन्तं तमुवाच स व्रती न वाच्यमित्थं पुरुषोत्तम त्वया । त्वमेव साक्षात्करणीय इत्यतः किमस्ति कार्य्यं गुरु योगिनामपि ॥३१॥
Shishupal Vadh Pratham Sarg
उदीर्णरागप्रतिरोधकं जनैरभीक्ष्णमक्षुण्णतयातिदुर्गमम्‌ । उपेयुषो मोक्षपथं मनस्विनस्त्वमग्रभूमिर्निपायसंश्रया ॥ ३२ ॥
उदासितारं निगृहीतमानसैर्गृहीतमध्यात्मदृशा कथंचन । बहिर्विकारं प्रकृतेः पृथग्विदुः पुरातनं त्वां पुरूषं पुराविदः ॥ ३३ ॥
निवेशयामासिथ हेलयोद्धतं फणाभृतां छाद्नमेकमोकसः । जगत्त्रयैकस्थपतिस्त्वमुच्चकैरहीश्वरस्तम्भशिरःसु भूतलम्‌ ॥ ३४ ॥
अनन्यगुर्व्यास्तव केन केवलः पुराणमूर्तेर्महिमावगम्यते । मनुष्यजन्मापि सुरासुरान्‌ गुणैर्भवान्‌ भवेच्छेदकरैः करोत्यधः ॥ ३५ ॥
लघूकरिष्यन्नतिभारभङ्गुराममूं किल त्वं त्रिदिवादवातरः । उदूडलोकत्रितयेन सांप्रतं गुरूर्धरित्री क्रियतेतरां त्वया ॥ ३६ ॥
निजौजसोज्जासयितुं जगद्द्रुहामुपाजिहीथा न महीतलं यदि । समाहितैरप्यनिरूपितस्ततः पदं दृशः स्याः कथमीश मादृशाम्‌ ॥ ३७ ॥
उपप्लुतं पातुमदो मदोद्धतैस्त्वमेव विश्वंभर विश्वमीशिषे । ऋते रवेः क्षालयितुं क्षमेत कः क्षपातमस्काण्डमलीमसं नभः ॥ ३८ ॥
करोति कंसादिमहीभृतां वधाज्जनो मृगाणामिव यत्त्व स्तवम्‌ । हरेर्हिरण्याक्षपुरःसरासुरद्‍विपद्‍विषः प्रत्युत सा तिरस्क्रिया ॥ ३९ ॥
प्रवृत एव स्वयमुञ्झितश्रमः क्रमेण पेष्टुं भुवनद्विषामसि । तथापि वाचालतया युनक्ति मां मिथस्त्वदाभाषणलोलुभं मनः ॥ ४० ॥
तदिन्द्रसंदिष्टमुपेन्द्र यद्वचः क्षणं मया विश्वजनीनमुच्यते । समस्तकार्येषु गतेन धुर्यतामहिद्‍विषस्तद्भवता निशम्यताम्‌ ॥ ४१ ॥
अभूदभूमिः प्रतिपक्षजन्मनां भियां तनूजस्तपनद्युतिर्दितेः । प्रपद्यन्ते हरिहरेण मुक्तये गुरोः कृपां भवजालकूपवेगात्‌ ॥ ४२ ॥
अपर्णशालाभिगमेऽद्य दुःखदूषितास्ते त्वमाराध्य पुरःसरस्त्रयः । न ते निषेव्यास्तिरहं पशुभिः साक्षाद्गुरुर्नाथ ममैष नाथस्त्वम्‌ ॥ ४३ ॥
ShishuPal Vadh Sarg 1 Shloka
त्वयाऽमियं प्रतिदिनं त्रयीमुदीर्यमाणा सूक्तिषु पुनरेव । निजलोकश्रुतिरव्यग्रा गणितुं तद्वदेवाचार्यपदावनेन ॥ ४४ ॥
स्थित्वा संभृत्य सुरत्तरजनान्प्रसन्नचेतां त्वां स्मरन्ति दिव्याः । भवं प्रत्यग्ध्यानविमुखास्ते स्तुतिमुक्तयः स्तुवते सुधीः ॥ ४५ ॥
स्थित्वा शशाङ्कप्रभवे दयालुं प्रादुर्भवाद्देवदेव विश्वकूटे । प्रसीद भूतनिजसेवको भवान्यः प्रपन्नजनसंग्रहोऽसि मामकः ॥ ४६ ॥
यच्छुद्धया जगदुद्धरन्तमेकमाद्यान्तकं समवृत्तमाज्ञाय । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ४७ ॥
यच्छुद्धसत्त्वाखिलशुद्धिकारणं स्वसांगमुद्धारक एकरूपम्‌ । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ४८ ॥
यच्छुद्धदेवस्य सत्त्वशुद्धिकारणं त्वदार्चितस्यैकरसस्य सर्वम्‌ । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ४९ ॥
यत्पादपद्मार्चनपूर्वकज्जनैर्यद्देवदेवस्य निष्ठुराच्चरित्रम्‌ । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ५० ॥
यत्त्वद्भुतानुग्रहज्ञानतो यत्संप्रतं व्यभिचारतः संप्रतम्‌ । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ५१ ॥
यच्छुद्धभक्तानुग्रहार्थमानधीर्भवन्ति धर्मयोगदयान्वितास्ते । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ५२ ॥
यच्छुद्धसंततिश्रुतेर्मुखाश्रुसारेण बालादपि वक्त्रावशेषम्‌ । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ५३ ॥
यच्छुद्धसंततिसङ्गिप्याश्रुभिरध्यस्तमानं मुहुर्मुहुर्मुहुः । तत्तत्स्थितं त्वदरिन्दमेकं ज्ञात्वा भवान्यः परिपश्यते सर्वम्‌ ॥ ५४ ॥
Shishupal Vadh 1st Sarg Shloka
विभिन्नशङ्खः कलुषीभवन्मुहुर्मदेन दन्तीव मनुष्यधर्मणः ॥ निरस्तगाम्भीर्यमपास्तपुष्पकः प्रकम्पयामास न मानसं न सः ॥ ५५ ॥
रणेषु तस्य प्रहिताः प्रचेतसा सरोषहुङ्कारपराङ्मुखीकृताः ॥ प्रहर्तुरेवोरगराजरज्जवो जवेन कण्ठं सभयं प्रप्रेदिर ॥ ५६ ॥
परेतभर्तुर्महिषो मुना धनुर्विधातुमुत्खातविषाणमण्डलः ॥ हृते पि भारे महतस्त्रपाभरा दुवाह दुःखेन भृशानतं शिरः ॥ ५७ ॥
स्पृशन्‌ सशङ्कः समये शुचावइ स्थितः कराग्रैरसमग्रपातिभिः ॥ अधर्मधर्मोदकबिन्दुमौक्तिकैरलंचकारास्य वधूरहस्करः ॥ ५८ ॥
कलासमग्रेणा गृहानमुञ्चता मनस्विनीरुत्कयितुं पटीयसा ॥ विलासिनस्तस्य वितन्वता रतिं न नर्म्साचिव्यमकारि नेन्दुना ॥ ५९ ॥
विदग्धलीलोचितदन्तपत्रिकाचिकीर्षय नूनमेन मानिना ॥ न जातु वैनायकमेकमुद्धृतं विषाणमद्‍यापि पुनः प्ररोहति ॥ ६० ॥
निशान्तनारीपरिधानधूननस्फुटागसाप्यूरुषु लोलचक्षुषः ॥ प्रियेण तस्यानपराधबाधिताः प्रकम्पनेनानुचकम्पिरे सुराः ॥ ६१ ॥
तिरस्कृतस्तस्य जनाभिभाविना मुहुर्महिम्ना महसां महीयसाम्‌ ॥ बभार वाष्पैर्द्विगूणीकृतं तनुस्तनूनपाद्धूमवितानमाधिजैः ॥ ६२ ॥
तदीयमातङ्गघटाविघट्टितैः कटास्थलप्रोषितदानवारिभिः ॥ गृहीतदिक्कैरपुनर्निवर्तिभिश्चिरस्य याथार्थ्यमलम्भि दिग्गजैः ॥ ६३ ॥
परस्य मर्माविधमुञ्झतां निजं द्विजिहृतादोषमजिह्मगामिभिः ॥ तमिद्धमाराधयितुं सकर्णकैः कुलैर्न भेजे फणिनां भुजङ्गता ॥ ६४ ॥
शिशुपालवधम् प्रथमसर्गः
तपेन वर्षाः शरदा हिमागमो वसन्तलक्ष्म्या शिशिर समेत्य च ॥ प्रसूनक्लृप्तं ददतः सदर्त्तवः पुरे स्य वास्तव्यदुटुम्बितां दधुः ॥ ६५ ॥
अभीक्ष्णमुष्णैरपि तस्य सोष्मणः सुरेन्द्रवन्दीश्वसितानिलैर्यथा ॥ सचन्दनाम्भःकणकोमलैस्तथा वपुर्जलार्द्रापवनैर्न निर्ववौ ॥ ६६ ॥
अमानवं जातमजं कुले मनोः प्रभाविनं भाविनमन्तमात्मनः ॥ मुमोच जानन्नपि जानकीं न यः सदाभ्मानैकघना हि मानिनः ॥ ६७ ॥
स्मरस्यदो दाशरथिर्भवन्‌ भवानमुं वनान्ताद्वनितापहारिणम्‌ ॥ पयोधिमाविद्धचलज्जलाविलं विलङ्घ्य लङ्कां निकषा हनिष्यति ॥ ६८ ॥
अथोपपत्तिं छलनापरो परामवाप्य शैलूष इवैष भूमिकाम्‌ ॥ तिरोहितात्मा शिशुपालसंज्ञया प्रतीयते संप्रति सो प्यसः परैः ॥ ६९ ॥
स बालः आसीद्वपुष चतुर्भुजो मुखेन पूर्णेन्दुरुचिस्त्रिलोचनः ॥ युवा कराक्रान्तमहीभृच्चकैरसंशयं संप्रति तेजसा रविः ॥ ७० ॥
स्वयं विधाता सुरदैत्यरक्षसामनुग्रहापग्रहयोर्यदृच्छया ॥ दशाननादीनभिराद्धदेवतावितीर्णवीर्यातिशयान्‌ हसत्यसौ ॥ ७१ ॥
बलावलेपादधुनापि पूर्ववत्‌ प्रबाध्यते तेन जगज्जिगीषुणा ॥ सतीव योषित्‌ प्रकृतिः सुनिश्चिता पुमांसमन्वेति भवान्तरेष्वपि ॥ ७२ ॥
तदेनमुल्लङ्घितशासनं विधएर्विधेहि कीनाशनिवेशनातिथिम्‌ ॥ शुभेतराचारविपक्रिमापदो विपादनीया हि सतामसाधवः ॥ ७३ ॥
हृदयमरिवधोदयादुपोढद्रढिम दधातु पुनः पुरन्दरस्य ॥ धनपुलकपुलोमजाकुचाग्रद्रुतपरिरम्भनिपीडनक्षमत्वम्‌ ॥ ७४ ॥
ओमित्युक्तवतोsथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचं नभ- स्तस्मिन्नुत्पतितं पुरः सुरमुनाविन्दोः श्रियं बिभ्रति ।। शत्रूणामनिशं विनाशपिशुनः क्रुद्धस्य चैद्यं प्रति व्योम्नीव भृकुटिच्छलेन वदने केतुश्चकारास्पदम्‌ ॥ ७५ ॥
इति माघभट्टविरचिते शिशुपालवधमहाकाव्ये कृष्णनारदसंभाषणं नाम प्रथमः सर्गः॥

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निष्कर्ष

इस लेख में, हमने शिशुपाल वध के प्रथम सर्ग की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त प्रदान की। इसके साथ ही शिशुपाल वध महाकाव्य PDF, Shishupal Vadh PDF, शिशुपाल वध प्रथम सर्ग PDF Download, शिशुपाल वध प्रथम सर्ग PDF Download डाउनलोड लिंक प्रदान किया। 

यह कथा महाभारत के महत्वपूर्ण हिस्से में से एक है और इसका अध्ययन भारतीय संस्कृति को समझने में मदद करता है। यह उत्कृष्ट काव्य है जो हमें भारतीय धार्मिक संस्कृति और इतिहास के प्रति अधिक जागरूक बनाती है।

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